ऐसी खेती मत करो प्यारे चतुर किसान ।

Babulal dahiya

प्रकृति का एक नियम था वह था हर वस्तु के उत्पादन के साथ संतुलन।हमने देखा है कि अगर हमारी धान में कीट दिखे तो मकड़ियां समस्त खेत में जाल बुन सैकड़ों बच्चे पैदा कर देती हैं जो उन्हें पकड़- पकड़ कर खा जाते हैं। जंगल में यदि सुअर बढ़े तो अपने आप वहां तेंदुआ पहुँच जाते हैं।

यहां तक कि मौसम में भी संतुलन रहता है।अभी लगीतार बीच-बीच मे बादल बूदी का मौसम चलता रहा था अस्तु गर्मी कम थी पर मई जून में हर वर्ष अधिकतम 40 -45 डिग्री सेल्सियस तक ताप क्रम बढ़ जाता है। सपोज करिए कि अगर वह 50-55 तक हो जाय तो क्या कोई जीव जन्तु य बनस्पति बच पाएगी? इसतरह प्रकृति हर जगह अपना संतुलन बनाकर रखती है।

प्रकृति की जो भी नैसर्गिक ढंग से उत्पादित बनस्पति है वह बीज सम्बर्धन के लिए है न कि ब्यापार सांस्कृति के लिए? अब उसी में थोड़ा श्रम लगा लोग कुछ अधिक उपज ले लेते तो उनके उपयोग केलिए भी होजाता। पर अगर उत्पादन चित्र वाले खीरा य टमाटर की तरह जरूरत से अधिक होजाय तो क्या किसान को उससे लाभ होगा य बाजार में मारा मारा फिरेगा?

हमने लड़कपन में देखा है कि हमारे गाँव की गोधनिया फूफू और बोटा काका कुशवाहा अपने आधा – आधा बिगहा की कोलिया (बाड़ी) में सब्जी लगा अपनी जिंदगी काट लिए। उन्हें कही किसी के यहां काम के तलास में नही जाना पड़ा था। क्योकि भाव का संतुलन था तो उन्हें उतनी ही भूमि में अपने श्रम का पूरा – पूरा मूल्य मिल जाता था।

पर अब नई खेती और इस प्रकार की भरपूर पैदावार देने वाली सब्जियों ने ऐसे हजारों 5-7 एकड़ बाले किसानों तक को गाँव निकाला की सजा देदी है। जबकि उसी भूमि में उन किसानों के पिता और पितामह खेती किसानी य सब्जी के बूते ही अपने बेटे बेटियों का विवाह भी कर लेते थे और कुछ लोग तो चारोधाम तीर्थाटन कर यज्ञ भंडारा भी किए साथ ही ग्रहस्ती भी चलती रहती थी।

लेकिन 50 वर्ष में ही इस खेती ने देश की क्या हालत करदी? ऐसी खेती में यदि लाभ है तो मात्र बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को जिनका टर्न ओभर भारत के वार्षिक बजट से भी अधिक है। बांकी इस असंतुलित ह्रदय हीन खेती ने गाय , बैल , श्रमिक , कृषि उद्द्मियों , कृषक पुत्रों सभी को गाँव से निकाल बाहर कर दिया है।

क्योकि अर्थ शास्त्र का सिद्धांत है कि ( उत्पादन बढ़ेगा तो मूल्य घटेगा) और जब मांग से अधिक पूर्ति हो जाएगी यो वस्तु फेंकी- फेंकी फिरेगी ही। पर अब वह भाव10 गुना तो घट ही चुका है आँगे न जाने और कितना घटता जायगा? पहले किसानों के बीच एक मान्यता थी कि “जिस साल आम में बौर अधिक आती है उस साल प्याज सस्ती बिकती है । और जिस वर्ष कम आम में फल आये उस साल महंगी।” इसीके आधार पर प्याज उत्पादक खेती करते थे।

लेकिन अब तो हर वर्ष ही किसान महंगा बीज, खाद, कीट नाशक ,नीदा नाशक डाल कर ऐसा उत्पादन लेता है कि बाद में समूची ट्रेक्टर ट्राली की प्याज ही सड़क में डाल कर घर लौट आना पड़ता हैं। 70 के दशक में कृषि विभाग के अधिकारियों कर्मचारियों को एक मंत्र पढ़ाया गया था अधिक उत्पादन जाप का। पर समय का तकाजा है कि अब नया मंत्र गुणवत्ता पूर्ण संतुलित उत्पादन में बदल जाना चाहिए। पर वे हैं कि आज भी उसी का जाप करते जा रहे हैं।

जो कृषि और उद्यानिकी कर्मचारी अधिकारी इन तमाम चीजों के अभी प्रचारक बने हुए हैं तो क्या इस तरह उत्पादन असंतुलन के पश्चात उनके अनुसंधान की आँगे कुछ गुंजाइश भी बचेगी? क्योकि चीज घटिया किस्म की आकर बाजार में पट जाती है जिससे न उत्पादक को लाभ होता न उपभोक्ता को गुणवत्ता पूर्ण वस्तु मिलती। इसलिए अब तो यह प्रश्न ही विचारणीय होगया है। कि– ऐसी खेती मत करो,  प्यारे चतुर किसान। धन धरती अरु स्वास्थ का, जिसमें है नुकसान।।

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