Babulal dahiya
इन दिनों प्रायः हर समाचार पत्रों में यह बात छपती रहती है कि किसानों की “आमदनी दूनी की जायगी।” और इसे तोता रटन्त की तरह अक्सर कृषि बिभाग के अधिकारी दोहराते भी रहते हैं। यदि यह कहा जाय कि “किसान की उपज दूनी बढ़ाई जायगी” तो यह सम्भव है। क्यो कि कोई नया चमत्कारी बीज सोने के भाव खरीद लेंगे और रिकमन्डेड डोज खाद, पानी तथा देख रेख में अच्छी मोटी राशि खर्च कर देंगे तो उपज दूनी हो जायगी।
पर ऐसी खेती से किसान की आय भी दूनी हो जायगी ? यह सम्भव नही। क्यों कि यह बोल कृषि विभाग के किसी अनुभवी अधिकारी के मौलिक बोल नही हैं, बल्कि किसी मंत्री के हैं जिसे खेती का कुछ मालूम नही है। पर भय बस कृषि विभाग के अधिकारी दुहराते फिर रहे हैं। कृषि विभाग के पास बड़े- बड़े प्रक्षेत्र हैं। 70 –80 के दशक में जब अनाज य सब्जी की कोई नई किस्म रिलीज होकर आती थी तो पहले इन्हीं प्रक्षेत्रों में उसे बुबाया जाता और प्रक्षेत्र दिवस आयोजित कर हम किसानों को दिखाया जाता था। फिर किसान अभिप्रेरित हो उसे खेतों में उगाते और सचमुच बढ़े उत्पादन का लाभ लेते। उन दिनों आम किसान परम्परागत खेती ही करते थे। तब इस तरह की खेती करने वाले किसान बिरले ही होते जो (प्रोग्रेसिब कल्टीवेटर) कहलाते थे। और (उत्पादन बढ़ेगा तो मूल्य घटेगा ) जैसा अर्थ शास्त्र का सिद्धांत तब प्रभावी नही हो पाता था।
उस समय उस नई खेती में लाभ का एक कारण यह भी था कि उन दिनों गाय बैल घर से निष्कासित नही थे, टैक्टर का उपयोग भी सीमित था। मूल्य आज से 10 गुना अधिक होने के कारण पूरा परिवार सहयोगी की भूमिका में रहता था। यही कारण था कि उत्पादन लागत कम आती थी और उपज अच्छे दाम पर बिक जाती थी। लेकिन आज की खेती प्रतिस्पर्धा की खेती है। उस खेती में खाद बीज ,जुताई बुबाई ,नीदा नाशक कीट नाशक , हरबेस्टिग ,मजदूरी , ढुलाई आदि का खर्च इतना बढ़ गया है कि जब तक फसल खेत में दिखती है तब तक तो वह बड़ी सुन्दर दिखती है। और देखने वाले का मन भी मोह लेती है। काट मीज लेकिन बाजार में बेंचने के बाद जब किसान आय ब्यय का हिसाब लगाता है तो शून्य बटा सन्नाटा ही नजर आता है।और सारा पैसा खाद बीज, कीट नाशक, नीदा नाशक, जुताई कटाई, गहाई ढुलाई एवं अन्य मजदूरी में जा चुका होता है। और किसान के आत्म हत्या को अंतिम विकल्प चुनते का कारण भी यही हो जाता हैं। फिर खेती के मायने यह भी नही कि बो देने के बाद काटने का अवसर आयेगा ही ? क्यों कि अति बृष्टि, अना बृष्टि, पाला ,ओला आदि न जाने कौन सी आफत कब आ जाय ? इसकी अनिश्चितता हमेशा बनी ही रहती है। इसीलिए घर में पर्याप्त जमीन होने के बाबजूद भी खेती करने के बजाय किसान पुत्र किसी शहर के दूकान में छोटी मोटी नोकरी में अधिक सुकून महसूस करता है।
इधर कृषि लागत तो हर वर्ष बढ़ रही है पर उस अनुपात में कृषि जिंस का भाव नही बढ़ रहा। दो डेढ़ रूपये किलो भाव बढ़ा भी तो सरकार अपना पीठ खुद ही ठोक लेती है जो लागत मूल्य के मुकाबले ऊँट के मुंह में जीरा ही सिद्ध होती है। यदि हमारे कृषि बैज्ञानिक या कृषि अधिकारी सचमुच दूने लाभ से संतुष्ट हैं तो सरकारी प्रक्षेत्रों, कृषि बिज्ञान केन्दों की भूमि में यह लाभ प्रद खेती कर के दिखाएं और प्रक्षेत्र का पूरा खर्चा व अपना बेतन भी उसी से निकाल कर दिखाएं तो किसान भी मान ले कि खेती लाभ का धंधा बन सकता है। वरना यह बकवास बन्द करे।